वाङ्मय त्रैमासिक हिंदी पत्रिका अलीगढ़ और विकास प्रकाशन, कानपुर के संयुक्त तत्त्वावधान में ‘किताब के बहाने’ श्रृंखला के अंतर्गत इस बार कथाकार-उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल को आमंत्रित किया गया है । इस अवसर पर मोरवाल ‘हलाला’ जैसे सामाजिक और धार्मिक विषय पर उपन्यास लिखने का विचार सबसे पहले उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गाँव में तलाक़ से पैदा हुई समस्या के बाद आया । इस घटना की ख़बर उन दिनों ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित हुई थी । इस ख़बर के अनुसार जब तलाक़शुदा महिला वापिस अपने पहले शौहर के पास जाने को हुई, तो उसे हलाला की प्रक्रिया से गुजरने को कहा गया । इस ख़बर को पढ़ कर मुझे लगा कि क्या कोई औरत आसानी से इसके लिए तैयार हो सकती है ? मैंने जब इस संबन्ध में कुरान को पढ़ा तो मुझे इसके बारे में सिर्फ़ दो आयतें मिलीं । इनके अनुसार तलाकशुदा औरत दो ही स्थिति में अपने पहले शौहर के पास लौट सकती है । एक, या तो उसका दूसरा शौहर उसे तलाक़ दे दे ; या दूसरे शौहर की मौत हो जाए । कुरान में कहीं इसका उल्लेख नहीं है कि ‘हलाला’ की प्रक्रिया के दौरान वह दूसरे शौहर के साथ शारीरिक संबन्ध बनाए । …. मेरा मानना है कि यही ज़रूरी शर्त आगे जाकर स्त्री शोषण का हथियार बन गई । एक बात और मैंने इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मेवात रखी है । इस उपन्यास को पढ़कर एक बार लगेगा मानो हलाला सिर्फ़ मेवात की समस्या है । जबकि सच्चाई यह है कि हलाला मेवात में प्रचलन में नहीं है । हाँ, कुछ दिन पहले एक मामला सुनने में ज़रूर आया था । मेवाती पृष्ठभूमि की वजह यह रही है कि मैं अपने मेव समाज को अच्छी तरह जानता हूँ। इसके माध्यम से मैं बेहतर तरीके से अपनी बात कह सकता हूँ । इस रस्म को मैंने स्त्री की नज़र से देखने का प्रयास किया है। जितने भी धर्म ग्रन्थ लिखे गए है वो सब पुरुषों ने ही रचे है किसी महिला ने नहीं, हलाला का ज़िक्र इसलिए है आदमी अपनी औरत को तलाक़ देने के लिए हज़ार बार सोचेगा ।
इस फेसबुक लाइव में देश-विदेश के अनेक विद्वान शोधार्थी एवं विद्यार्थी मौजूद थे जिनमें प्रो.गजनफ़र अली, तेजेन्द्र शर्मा,उषा राजे सक्सेना,डॉ. आनंद शुक्ला,डॉ. इरशाद, डॉ. शमीम, डॉ. कामिल, डॉ. शगुफ्ता नियाज़,डॉ. सीपी श्रीवास्तव,डॉ. कर्मानंद,डॉ. आसिफ,डॉ. सरफ़राज़, डॉ. लवलेश, डॉ. प्रभा मिश्रा,डॉ. सारिका, शिवम, कमलेश वर्मा अभिषेक, ईश्वर दयाल, मनीष, रिंकी, अकरम कादरी, अंबरीन आफताब आदि ।
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