मो. शोएब
कानपुर । 15 अगस्त भारत के इतिहास की सबसे अहम तारीख़ में से एक है। इसी दिन भारत ब्रिटिश हुकूमत से आज़ाद होकर एक स्वतंत्र राज्य बना था। इस दिन को हम स्वतंत्रता दिवस के नाम से भी जानते हैं।
भारत को ब्रिटिश हुकूमत आज़ादी दिलाने में अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी जान की क़ुरबानी दी । जब कभी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की बात होती है, तो मुस्लिम समुदाय से सिर्फ़ एक ही नाम सामने आता हैं।(वर्तमान में वो भी नहीं) लेकिन उस नाम के अलावा किसी और का नाम नज़र नहीं आता है। उस नाम से आप भी अच्छी तरह वाकिफ हैं। जी हाँ, वह और कोई नहीं अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान है।
तो क्या मुसलमानों में सिर्फ़ अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल थे? इसके अलावा एक और नाम है मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जिसे देखकर हमने भी यही समझ लिया कि मुसलमानों में सिर्फ़ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद व अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान के बाद दूसरे ऐसे मुसलमान थे, जो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा थे जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन मे हिस्सा लिया था।
आज जिन मदरसों वा फतवों को शक की निगाह से देखा जाता हैं ।भारत की आज़ादी में सबसे पहले उन्होंने ने ही लोगों में आज़ादी का ज़्ज़्बा पैदा किया ।
अगर इतिहास का गहन अध्ययन किया जाए तो आप देखेंगे 1498 की शुरुआत से लेकर 1947 तक मुसलमानों ने विदेशी आक्रमणकारियों से जंग लड़ते हुए अपनी जानों को शहीद करते हुए सब कुछ बलिदान कर दिया। इतिहास के पन्नों में अनगिनत मुस्लिम हस्तियों के नाम दबे पड़े हैं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपने जीवन का बहुमूल्य योगदान दिया। उनका ज़िक्र भूले से भी हमें सुनने को नहीं मिलता है। जबकि अंग्रेजों के ख़िलाफ़ भारत के संघर्ष में मुस्लिम क्रांतिकारियों, कवियों और लेखकों का योगदान भुलाया नहीं जा सकता है।
हम बात करते हैं सबसे पहले 1757 ईस्वी के में नवाब सिराजुद्दौला की जिनकी पहले जंग हुई अंग्रेजो के साथ और उस 1757 के जंग के अंदर बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है की नवाब सिराजुद्दोला को हार जाना पढ़ा
शाह अब्दुल अज़ीज़ रह. का अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ फ़तवा:
1772 में ही शाह अब्दुल अज़ीज़ रह. ने अंग्रेज़ो के ख़िलाफ़ जेहाद (ज़ुल्म के खिलाफ लड़ाई)करने का फ़तवा दे दिया (हमारे देश का इतिहास 1857 की मंगल पांडे की क्रांति को आज़ादी की पहली क्रांति माना जाता है)। जबकि सच्चाई यह है कि शाह अब्दुल अज़ीज़ रह. इस घटना से 85 साल पहले ही आज़ादी की क्रांति की लौ हिन्दुस्तानियों के दिलों मे जला चुके थे। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जेहाद के फ़तवे के ज़रिए उन्होंने कहा के अंग्रेज़ो को देश से निकाल बाहर करो और आज़ादी हासिल करो।
1772 के इस फतवे के बाद जितनी भी तहरीके चली वो दरासल इस फतवे का नतीजा थी ‘वहाबी तहरीक’ ‘तहरीके रेशमी रूमाल’ ‘जंगे आज़ादी’ ‘तहरीके तर्के’ मुवालात और तहरीके बाला कोट या इस तरह की जितनी भी कोशिशें थी वो सब के सब शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० के फतवे का नतीजा थी मुसलमानों के अन्दर एक जजबा पैदा होना शुरू हो गया के अंग्रेज़ लोग फकत अपनी तिजारत ही नहीं चमकाना चाहते बल्के अपनी सभ्यता को भी यहां पर ठूसना चाहते है इस ज़्ज़्बे के पैदा होने के बाद दूसरे उलमा इकराम ने भी इस सच्चाई को महसूस किया के हमे अंगरेज़ो से निजात पाना ज़रुरी है । पर कुछ जंग शाह अब्दुल अज़ीज़ रह ० के फतवे से पहले भी लड़ी गई थी
पहली जंग-ए-आज़ादी के महान स्वतंत्रता सेनानी अल्लामा फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी ने दिल्ली की जामा मस्जिद से अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जेहाद का फ़तवा दिया था। इस फ़तवे के बाद आपने बहादुर शाह ज़फर के साथ मिलकर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला और अज़ीम जंग-ए-आज़ादी लड़ी। अंग्रेज इतिहासकार लिखते हैं कि इसके बाद हज़ारों उलेमाओं को फांसी के तख़्ते पर चढ़ा दिया गया। सैकड़ों को तोप से उड़ा कर शहीद कर दिया गया था। और बहुतों को काले पानी की सज़ा दे दी गई थी। अल्लामा फ़ज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी को रंगून में काला पानी में शहादत हासिल हुई।
हैदर अली और टीपू सुल्तान की वीरता:
हैदर अली और बाद में उनके बेटे टीपू सुल्तान ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रारम्भिक ख़तरे को समझा और उसका विरोध किया। टीपू सुल्तान भारत के इतिहास में एक ऐसा योद्धा भी था जिसकी दिमाग़ी सूझबूझ और बहादुरी ने कई बार अंग्रेजों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। अपनी वीरता के कारण ही वह ‘शेर-ए-मैसूर’ कहलाए। अंग्रेज़ों से लोहा मनवाने वाले बादशाह टीपू सुल्तान ने ही देश में अंग्रेज़ों के ज़ुल्म-ओ-सितम के ख़िलाफ़ बिगुल फूंका था। उन्होंने जान की बाज़ी लगा दी मगर अंग्रेज़ों से समझौता नहीं किया। टीपू अपनी आख़िरी सांस तक अंग्रेज़ों से लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। टीपू की बहादुरी और वतन परस्ती के क़ायल होते हुए पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने उनकी तारीफ़ की। उन्होंने टीपू को विश्व का सबसे पहला रॉकेट आविष्कारक बताया था।
बहादुर शाह ज़फ़र:
बहादुर शाह ज़फ़र (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आख़िरी शहंशाह थे। वो उर्दू भाषा के नामवर शायर भी थे। उन्होंने 1857 का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया था। बहादुर शाह ज़फर सिर्फ़ एक देशभक्त मुग़ल बादशाह ही नहीं बल्कि उर्दू के मशहूर शायर भी थे। उनकी शायरी से अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बग़ावत से उथल-पुथल मच गई।इस पहली जंग-ए-आज़ादी में हार के बाद अंग्रेज़ों ने उन्हें क़ैद कर बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया था, जहां जेल में उनकी मृत्यु हो गई थी। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वह अपने जीवन की अंतिम सांस हिंदुस्तान में ही लें और वहीं उन्हें दफ़नाया जाए लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। अपने दर्द और वतन परस्ती को उन्होंने ने कुछ यूं अपने अल्फजो बयान किया–
कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीं भी न मिली कू-ए-यार में।
1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह और भारतीय विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है
सिपाही विद्रोह के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा ज्यादातर ऊपरी वर्ग के मुस्लिम लक्षित थे क्योंकि वहां और दिल्ली के आसपास इन्हें के नेतृत्व में युद्ध किया गया था। हजारों की संख्या में मित्रों और सगे संबंधियों को दिल्ली के लाल किले पर गोली मार दी गई या फांसी पर लटका दिया गया जिसे वर्तमान में खूनी दरवाजा (ब्लडी गेट) कहा जाता है।
यह विद्रोह दो वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चला। इस विद्रोह का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ था परन्तु जनवरी मास तक इसने एक बड़ा रुप ले लिया। विद्रोह का अन्त भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की समाप्ति के साथ हुआ!
प्रसिद्ध उर्दू कवि मिर्जा गालिब (1797-1869) ने अपने पत्रों में इस प्रकार के ज्वलंत नरसंहार से संबंधित कई विवरण दिए हैं जिसे वर्तमान में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस द्वारा ‘गालिब हिज लाइफ एंड लेटर्स’ के नाम के प्रकाशित किया है और राल्फ रसेल और खुर्शिदुल इस्लाम द्वारा संकलित और अनुवाद किया गया है (1994).
रेशम पत्र आंदोलन (रेशमी रूमल)
आजादी के आंदोलन में विश्वप्रसिद्ध इस्लामिक शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद का योगदान भी कम नहीं रहा। यहां से शुरू हुआ ‘तहरीक-ए-रेशमी रुमाल’ ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे। इसके तहत रुमाल पर गुप्त संदेश लिखकर इधर से उधर भेजे जाते थे, जिससे अंग्रेजी फौज को आंदोलन के तहत की जाने वाली गतिविधियों की खबर नहीं लग सके।
आजादी में दारुल देवब
आज़ादी में देवबंद उलमाओं का योगदान
दारुल उलूम देवबन्द की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा रखी गयी थी। वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज़ कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रेजों ने अपनी संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबन्द जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे। चारो ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुक़ाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से उपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढ़ाया उनमें दारुल उलूम देवबन्द के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता।
ग़दर आंदोलन :
‘ग़दर’ शब्द का अर्थ है विद्रोह, इसका मुख्य उद्देश्य भारत में क्रान्ति लाना था और अंग्रेज़ी नियंत्रण से भारत को स्वतंत्र कराना था। ग़दर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया, भोपाल के बरकतुल्लाह ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे, जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था। ग़दर पार्टी के सैयद शाह रहमत ने फ्रांस में एक भूमिगत क्रांतिकारी रूप में काम किया और 1915 में असफ़ल ग़दर (विद्रोह) में उनकी भूमिका के लिए उन्हें फांसी की सज़ा दी गई। फ़ैज़ाबाद (उत्तर प्रदेश) के अली अहमद सिद्दीक़ी ने जौनपुर के सैयद मुजतबा हुसैन के साथ मिलाया और बर्मा में भारतीय विद्रोह की योजना बनाई और 1917 में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया था।
ख़ुदाई ख़िदमतगार मूवमेंट :
भारत में पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन में ख़ुदाई ख़िदमतगार के नाम से चलाया। वह एक ऐतिहासिक आन्दोलन था। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ़्तारी 3 वर्ष के लिए हुई थी। उसके बाद उन्हें यातनाओं को झेलने की आदत सी पड़ गई। जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘ख़ुदाई ख़िदमतग़ार’ नामक संस्था की स्थापना की और अपने आन्दोलनों को और भी तेज़ कर दिया।
अलीगढ़ आन्दोलन :
सर सैयद अहमद ख़ान ने अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन का नेतृत्व किया। वे अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारम्भिक काल में राजभक्त होने के साथ-साथ कट्टर राष्ट्रवादी थे। उन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया। 1884 ई. में पंजाब भ्रमण के अवसर पर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए सर सैयद अहमद ख़ान ने कहा था कि, हमें (हिन्दू और मुसलमानों को) एक मन एक प्राण हो जाना चाहिए और मिल-जुलकर काम करना चाहिए। यदि हम एक साथ होंगे तो एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक मददगार हो सकते हैं। अगर नहीं तो एक का दूसरे के ख़िलाफ़ होना दोनों का ही पूर्णतः पतन और विनाश कर देगा। इसी प्रकार के विचार उन्होंने केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में भाषण देते समय व्यक्त किया था। एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा था कि, हिन्दू एवं मुसल्मान शब्द को केवल धार्मिक विभेद को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों ही एक ही राष्ट्र हिन्दुस्तान के निवासी हैं। सर सैयद अहमद ख़ान द्वारा संचालित ‘अलीगढ़ आन्दोलन’ में उनके अलावा नज़ीर अहमद, चिराग़ अली, अल्ताफ़ हुसैन, मौलाना शिबली नोमानी इस आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता थे।
यह तो अभी चुनिंदा लोगों के नाम हमने आपको बताए हैं. ऐसे हज़ारों-लाखों मुसलमान थे, जिन्होंने भारत की आज़ादी की लड़ाई में अपनी क़ुर्बानी देकर देश को आज़ाद कराने में अहम भूमिका अदा की। इतना ही नहीं मुस्लिम महिलाओं ने भी मुल्क की आज़ादी के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया। इनमें बेगम हज़रत महल, असग़री बेगम, बाई अम्मा आदि ने ब्रिटिश के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता के संघर्ष में योगदान ना भूलने वाला योगदान दिया है। पर अफ़सोस की बात यह है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इतने मुसलमानों के शहीद होने के बाद भी हमें मुसलमानों के योगदान के बारे में नहीं बताया जाता है
अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहली आवाज़ उठाने वाले मुसलमान नवाब सिराजुद्दौला, शेर-ए-मैसूर टीपू सुल्तान, हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी, हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिस देहलवी, हज़रत सैयद अहमद शहीद, हज़रत मौलाना विलायत अली सदिक़पुरी, ज़फर सिराजुद्दीन, बहादुर शाह ज़फर,अल्लामा फज़ल-ए-हक़ ख़ैराबादी, शहज़ादा फ़िरोज़ शाह, मौलवी मुहम्मद बाक़र शहीद, बेगम हज़रत महल, मौलाना अहमदुल्लाह शाह, नवाब ख़ान बहादुर ख़ान, अज़ीज़न बाई, मौलवी लियाक़त अली, अल्लाहाबाद, हज़रत हाजी इमदादुल्लाह, मुहाजिर मकई, हज़रत मौलाना मुहम्मद क़ासिम नानोतवी, मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी, शेख़-उल-हिन्द हज़रत मौलाना महमूद हसन, हज़रत मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी, हज़रत मौलाना रशीद अहमद गंगोही, हज़रत मौलाना अनवर शाह कश्मीरी, मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली, हज़रत मौलाना किफ़ायतुल्लाह, सुभान-उल-हिन्द मौलाना अहमद सईद देहलवी,हसरत मोहानी, हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी, सईद-उल-अहरार, मौलाना मुहम्मद अली जौहर जैसे ना जाने कितने ही मुसलमानों ने मुल्क को आज़ाद करने का ख़्वाब देखा और मुल्क के लिए शहीद हो गए।
इसलिए मुल्क के हर नागरिक का यह फ़र्ज़ बनता है कि इतिहास के पन्नों में ज़रूर झांके और अपने जांबाज़ सिपाहियों और आज़ादी के अलम-बरदारों के बारे में ज़रूर जानें
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