कानपुर । किसी भी भाषा को एक जाति और धर्म में बांटकर नहीं देखना चाहिए क्योंकि भाषा और साहित्य को कभी भी बांटा नहीं जा सकता उक्त उद्गार वाङ्गमय पत्रिका और विकास प्रकाशन कानपुर के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित’साझी विरासत’ व्याख्यानमाला में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के फ़ारसी विभाग के प्रोफ़ेसर सय्यद हसन अब्बास ने व्यक्त किये ।
उन्होंने उर्दू,अरबी,फ़ारसी भाषा और साहित्य में गैर मुस्लिमों के योगदान पर प्रकाश डालते हुए कहा कि एक धारणा के अनुसार उर्दू भाषा को मुसलमानों की भाषा मान लिया जाता है जो एक नितान्त ग़लत अवधारणा है । प्रेमचंद,फ़िराक़ गोरखपुरी,चकबस्त,उपेंद्र नाथ अश्क,ताराचन्द,सुदर्शन,कृष्ण चन्दर,मौलवी महेश प्रसाद,मालिक राम,हुकुम चन्द नैयर, गोपीचंद नारंग जैसे उर्दू कथाकारों के योगदान पर प्रकाश डालते हुए बताया कि इनके उपन्यासों और कहानियों में भारत की साझी विरासत को चित्रित किया गया है । जो गंगा-जमुना तहज़ीब का सजीव उदाहरण है । उर्दू भाषा कभी भी हिंदुस्तान में बसने वाले भारतीयों के बगैर पूरी नहीं हो सकती, यह वो भाषा है जिसको हिन्दुओ ने सबसे ज्यादा पाला पोसा है क्योंकि यह भारत के सांझी विरासत का अहम हिस्सा है। भारतीय संस्कृति भी वसुधैव कुटुम्बकम की जो बात करती है वो बगैर सभी भाषाओं को बराबर सम्मान देने के पूरी नहीं हो सकती है । भारत मे अनेक लोग आए उनकी सभ्यता,संस्कृति,भाषा भी साथ मे आई,और देश की सांझी विरासत को इस देश के नागरिकों ने बराबर सम्मान दिया मुग़लो ने भाषाओं और इसकी संस्कृति पर अच्छा काम किया और वो यहीं बस गए उनकी पीढियां आज भी यही पर है । लेकिन अंग्रेज़ यहां पर अपनी संस्कृति,भाषा,संस्कार तो लाये लेकिन वो यहां रुके नहीं यहां से भाग गए । देश जब आज़ाद हुआ तब अंग्रेज़ो ने हालात को समझते हुए यहां से लूटपाट करके निकल लिए जबकि मुग़ल यहां पर भाषाओं को फरोग देकर यही रहे क्योंकि उनको इस देश की साझी विरासत से बेइंतेहा मोहब्बत हो गयी थी । इस लाइव कार्यक्रम में देश विदेश से बहुत से विद्वान और शोधार्थी शामिल हुए ।
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