कानपुर । शिक्षा सब का अधिकार मौलिक अधिकार है । शिक्षा का अधिकार की धारा 12 (1) ग के तहत अलाभित एवं दुर्बल वर्ग के बालकों का चयन शासन द्वारा ड्रा उपरांत लॉटरी के माध्यम से निजी विद्यालयों में होना था परन्तु रसूखदार निजी विद्यालयों जैसे सेठ आनंदराम जयपुरिया स्कूल, विरेंद्र स्वरूप एजुकेशन सेंटर श्याम नगर एवं किदवई नगर, वीरेन स्वरूप पब्लिक स्कूल कैंट, सीलिंग हाउस स्कूल सिविल लाइंस व अमान्य विद्यालय बिल्लाबांग कंगारू किड्स सिविल लाइंस एवं द कंगारू किड्स किदवई नगर आज दिनांक तक गरीब व अलाभित अभिभावकों को टहला रहे है। दिसंबर माह में भी बच्चों का प्रवेश संभव नहीं हो सका ।जिला अधिकारी आलोक तिवारी, जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी पवन कुमार तिवारी से आख्या मांगते हैं और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी निजी विद्यालयों को नोटिस के रूप में झुनझुना थमा देते हैं । मिश्रा ने व्यथित होकर आगे कहा कि जिलाधिकारी कार्यालय का नाम जिला आख्या कार्यालय और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी का नाम जिला नोटिस सिंह अधिकारी कर दिया जाना चाहिए।सुनीत तिवारी, प्रज्ञात राजन द्विवेदी एवं शबाब हुसैन द्वारा अपने संयुक्त वक्तव्य में बताया कि मानवाधिकार एवं मानवाधिकार आयोग ,राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग एवं उत्तर प्रदेश राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग को समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि यह आयोग दंत नख विहीन संस्थाएं हैं यह जनता को धोखा देने के लिए बने हुए हैं जनता के कर से इन संस्थाओं में कार्यरत अध्यक्ष एवं कर्मचारी केवल मात्र अपने बच्चों को पाल रहे हैं और किसी भी गरीब व अलाभित को रसूखदार निजी विद्यालयों से उसका अधिकार दिला पाने में अक्षम रहे हैं । नरेश सिंह चौहान ने आगे कहा कि यदि सरकारी लोकसेवक न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के उस आदेश का अनुपालन करें जिसमें उन्होंने कहा था कि सभी लोकसेवक अपने बच्चों को सरकारी प्राइमरी विद्यालयों में पढ़ाएं जिससे कि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो सके उन्होंने आगे कहा कि यदि जिला अधिकारी एवं जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के बच्चे सरकारी प्राइमरी विद्यालय में पढ़ेगे तो स्कूल के अध्यापकों में भय होगा कि जिला अधिकारी कहीं औचक निरीक्षण ना करें एवं जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी का नैतिक कर्तव्य भी है कि वह अपने बच्चों को सरकारी प्राइमरी विद्यालयों में पढ़ाये यदि वह अपने बच्चों को सरकारी प्राइमरी विद्यालयों में नहीं पढ़ाते तो यह राजद्रोह की श्रेणी में आना चाहिए एवं प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या सरकारी लोक सेवकों को अपनी ही संस्थाओं पर विश्वास नहीं है ।
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